भारत वर्ष में रंग ही रंग हैं, कहीं गीत-संगीत का रंग, कहीं उत्सव का रंग तो कहीं आस्था का रंग। इन्हीं इंद्रधनुषी रंगों में से एक है गणगौर उत्सव का रंग। गणगौर जिसे उमंगों का त्यौहार कहा जाता है। मां पार्वती 16 दिन के लिए मायके आती हैं। बस इसी खुशी में राजस्थान का चप्पा-चप्पा गीत-संगीत व मौज-मस्ती के रंग में रंग जाता है। गणगौर दो शब्द गण और गौर से मिलकर बना यानि शिव और मां पार्वती यानि मां गौरी जिन्हें प्यार और त्याग का प्रतीक माना जाता है। तो आईए जानते हैं गणगौर पर्व से जुड़ी परंपरा और पूजन विधि।
पूजा मुहूर्त
तृतीया तिथि आरंभ |
17:53, 19 मार्च (सोमवार) |
तृतीया तिथि समाप्त |
16:50, 20 मार्च (मंगलवार) |
पूजन विधि
- गणगौर पूजा चैत्र एकादशी से शुरू होती है।
- इस दिन महिलाएं बांस की छोटी-छोटी टोकड़ियों में गेहूं रखकर मंगल गीत गाते हुए माता की बाड़ी जाती हैं।
- हर शहर में चार जगह बाड़ी बनाई जाती है, जहां गेहूं के दाने टोकड़ियों में भरकर बोएं जाते हैं।
- फिर सात दिन तक माता के ज्वारों को पवित्र जल से सींचा जाता है।
- चैत्र शुक्ल तृतीया को माता की बाड़ी खोली जाती है। जहां से महिलाएं माता की पूजा-अर्चना कर ढोल-मंजीरे के साथ ज्वार रूपी माता को रथों में रखकर अपने घर ले जाती हैं।
- बाद में इसी ज्वार का विसर्जन कर माता गौरी को मायके से प्रतीकात्मक रूप से ससुराल भेज दिया जाता है।
क्या है परंपरा
- ऐसी मान्यता है कि अविवाहित लड़कियां गणगौर का व्रत मनचाहा वर पाने के लिए करती हैं।
- परंपरा है कि जिन लड़कियों की शादी हो जाती है वो 16 बार गणगौर पूजन करती हैं।
- इस दौरान ससुराल से मायके आकर दीवार पर हल्दी-कुमकुम की बिंदी लगाकर शिव-पार्वती के स्वरूप गणगौर का पूजन और अखंड सौभाग्य की कामना करती हैं।
लोक उत्सव के पर्व गणगौर में राजस्थान की मिट्टी की सोंधी सुगंध है, आस्था के रंग और मिठास का स्वाद है और आस्था अखंड है।