कुरुक्षेत्र की रणभूमि में योगेश्वर कृष्ण ने अर्जुन को जीवन और आत्मा के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण उपदेश दिए। गीता उपदेश के रूप में ये आज के समय में भी महत्वपूर्ण हैं और प्रासंगिक हैं। जीवन के हर पहलू को परिभाषित करते गीता के श्लोक आपको ज्ञान और उल्लास से भर देंगे । जीवन का सार क्या है और जीवंतता के साथ किस तरह जीवन जिया जाए ? मनुष्य का कर्त्यव्य क्या है ? आदि-आदि प्रश्नों का उत्तर गीता के उपदेशों में आपको जानने को मिलेगा। 18 अध्यायों में लगभग 720 श्लोकों में गीता का ज्ञान श्री कृष्ण ने अर्जुन को दिया। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण श्लोक ऐसे हैं जो सत्य के समकक्ष आपको लेकर जाते हैं।
गीता में दिया गया ज्ञान बदलते सामाजिक परिदृश्यों में भी आज भी अपने महत्त्व को बनाये हुए है । समय के साथ तकनिकी रूप से उपलब्धता से इसका प्रचार-प्रसार देश- विदेश में भी बढ़ा है। पढ़िए कुछ महत्वपूर्ण श्लोक
हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम्, जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम्।
तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥
(द्वितीय अध्याय, श्लोक 37)
अर्थात हे अर्जुन! युद्ध में वीरगति को प्राप्त होने पर तुम्हें स्वर्ग का अधिकार मिलेगा और विजयी होते हो तो पृथ्वी के सुख भोगोगे , इसलिए है कौन्तेय उठो और निश्चय के साथ युद्ध करो।
जीवन में कई बार ऐसा होता है जब हम निराशा में जाने लग जाते हैं उस समय हमें अपने कर्तव्यों पर ध्यान देना चाहिए। निश्चय करके जो सही है उस पर कार्य करना चाहिए।
नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत ॥
(द्वितीय अध्याय, श्लोक 23)
श्री कृष्ण कहते हैं ! आत्मा को न शस्त्रों से काटा जा सकता है, न आग से जलाया जा सकता है, न पानी से गीला किया जा सकता है और न हवा उसे सुखाती है ।
जिस शरीर को हम ‘स्वयं’ मानते हैं वो केवल हमारा आधार मात्र है। हम सब केवल आत्मा रूप है जो निराकार है जो सदैव शाश्वत रहती है। अपने कर्तव्यों और कर्मो के आधार पर इसे अलग शरीर का आधार लेना होता है।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
(तृतीय अध्याय, श्लोक 21)
अर्थात श्रेष्ठ लोग जो-जो आचरण करते हैं, जनमानस उसे ही अपना आदर्श मानते हैं। उनके आचरण को देखकर ही अन्य लोग भी अनुसरण करते हैं।
श्रेष्ठ लोग अर्थात वो लोग जो लोगों का नेतृत्व करते हैं उनके आचरण का प्रभाव जनमानस पर पड़ता है, इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम अच्छे आचरण का उदाहरण प्रस्तुत करें।
श्रद्धावान्ल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥
(चतुर्थ अध्याय, श्लोक 39)
इस श्लोक का अर्थ है: श्रद्धा रखने वाले मनुष्य, अपनी इन्द्रियों पर संयम रखने वाले मनुष्य, साधना से ज्ञान प्राप्त करते हैं। इस ज्ञान से उन्हें परम-शांति मिलती है।
जो व्यक्ति एकाग्र भाव से अपने अच्छे कर्मों (साधना ) में लगा रहता है। ज्ञान की प्राप्ति से उसको निश्चित ही अपने लक्ष्यों की प्राप्ति होती है।
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥
अर्थ : निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है ।
भावार्थ : प्रत्येक मनुष्य प्रति क्षण कर्म कर रहा है। उसके पर आचार- विचार और व्यवहार से उसका प्रारब्ध बन रहा है। इसलिए मनुष्य को अपने कर्म के साथ-साथ सोच पर भी ध्यान देना चाहिए।
आपदः संपदः काले दैवादेवेति निश्चयी।
तृप्तः स्वस्थेन्द्रियो नित्यं न वान्छति न शोचति॥
जीवन में आने वाले सुख और दुःख प्रारब्धवश है और प्रारब्ध उसके आपने पुराने कर्मों के आधार पर बना है। इस ज्ञान को जानने वाला संतोष और सयंम से युक्त हो जाता है। फिर वो इच्छाओं और शोक से परे हो जाता है।
चिन्तया जायते दुःखं नान्यथेहेति निश्चयी।
तया हीनः सुखी शान्तः सर्वत्र गलितस्पृहः॥
अर्थात चिंता से दुःख उत्पन्न होते हैं इसका अन्य कोई कारण नहीं है। जो मनुष्य निश्चय बुद्धि होकर ये जान लेता है वो चिंताहीन होकर सुखी, शांत और सभी इच्छाओं से मुक्त हो जाता है ।
सम्पूर्ण गीता का सार है कि बुद्धि को सदैव आत्मिक रूप में बनाये रखो। अपने कर्म के अनुसार कार्य करते रहो। दूसरे के स्वभावगत कर्म को अपनाकर चलना कठिन है क्योंकि प्रत्येक जीव भिन्न भिन्न संस्कारों और प्रकृति से कार्य करता है। इसलिए सभी को आत्मिक भाव से स्वीकार करते हुए जीवन को निर्वाह करना चाहिए।